दिल्ली की एक अदालत ने सोमवार को केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) को पूर्व जेएनयू छात्र नजीब अहमद के गुमशुदगी मामले को बंद करने की अनुमति दे दी। नजीब 15 अक्टूबर, 2016 को लापता हुए थे।
यह खबर सुनकर ऐसा लगा जैसे एक और उम्मीद की किरण भी बुझ गई। अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ज्योति माहेश्वरी ने CBI की इस बंदी रिपोर्ट (क्लोजर रिपोर्ट) को स्वीकार कर लिया। हालाँकि, उन्होंने यह भी कहा कि अगर भविष्य में इस मामले में कोई नया सबूत मिलता है, तो मामले को दोबारा खोला जा सकता है। यानी, दरवाजा पूरी तरह बंद नहीं हुआ, लेकिन फिलहाल तो जांच रुक गई है।
पृष्ठभूमि: जब जेएनयू के हॉस्टल से गायब हुए नजीब
नजीब अहमद, जेएनयू में एम.एससी बायोटेक्नोलॉजी के छात्र थे। उनकी गुमशुदगी का मामला देशभर में सुर्खियों में रहा, जिसने छात्र राजनीति, संस्थानों की जवाबदेही और न्याय की उम्मीद पर गंभीर सवाल खड़े किए।
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वह भयावह रात (14-15 अक्टूबर, 2016): नजीब के गायब होने से ठीक एक रात पहले, 14 अक्टूबर की रात, जेएनयू के मही-मांडवी हॉस्टल में उनकी कुछ छात्रों के साथ झड़प हुई। इन छात्रों पर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) से जुड़े होने का आरोप लगा।
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अस्पताल जाने से इनकार?: CBI ने अदालत को बताया कि इस झड़प के बाद नजीब को सफदरजंग अस्पताल जाने की सलाह दी गई थी, जहाँ उन्हें मेडिको-लीगल केस (MLC) रिपोर्ट बनवानी थी। लेकिन, जांच अधिकारी के मुताबिक, नजीब अपने दोस्त मोहम्मद कासिम के साथ अस्पताल से वापस हॉस्टल चले गए और कोई MLC रिपोर्ट नहीं बनवाई। बाद में अस्पताल के डॉक्टर और पैरामेडिकल स्टाफ के बयान भी इस बात की पुष्टि नहीं कर सके क्योंकि नजीब के अस्पताल आने का कोई दस्तावेजी सबूत नहीं मिला।
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माँ को आखिरी फोन: 15 अक्टूबर की देर रात (या 16 अक्टूबर की सुबह तड़के), नजीब ने अपनी माँ फातिमा नफीस को फोन किया। उनकी आवाज में डर साफ झलक रहा था। उन्होंने कहा कि उनके साथ “कुछ गलत हुआ है”। यह फोन कॉल नजीब के परिवार द्वारा सुने गए उनके आखिरी शब्द थे।
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बेटे से मिलने पहुँची माँ, लेकिन…: फातिमा नफीस उसी दिन सुबह उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर से बस पकड़कर दिल्ली पहुँचीं। दिल्ली पहुँचने पर उन्होंने नजीब से फोन पर बात की और उनसे हॉस्टल में मिलने को कहा। लेकिन, जब वे मही-मांडवी हॉस्टल के कमरा नंबर 106 पर पहुँचीं, तो नजीब का वहाँ कोई अता-पता नहीं था। उनके रूममेट कासिम ने फातिमा को बताया कि रात को हुई झड़प में नजीब घायल हो गए थे। उस दिन के बाद से नजीब कहीं नहीं मिले। उनका सिर्फ मोबाइल फोन कमरे में पड़ा मिला।
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हॉस्टल वार्डन का बयान: हॉस्टल के वार्डन ने पुलिस को बताया था कि उन्होंने नजीब को 15 अक्टूबर की सुबरह हॉस्टल से बाहर ऑटो पर जाते हुए देखा था। यह अंतिम ‘आधिकारिक’ दृष्टि थी।
जांच का लंबा और उलझा हुआ सफर:
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दिल्ली पुलिस से CBI तक: मामले की शुरुआती जांच दिल्ली पुलिस ने की। लेकिन, लापता होने के करीब दो महीने बाद, दिसंबर 2016 में, मामला CBI को सौंप दिया गया। परिवार और कई हलकों ने दिल्ली पुलिस की जांच पर सवाल उठाए थे और एक स्वतंत्र जांच की मांग की थी।
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CBI की जांच ठप्प (2018): CBI भी नजीब का कोई सुराग नहीं लगा पाई। करीब दो साल की जांच के बाद, 2018 में ही, CBI ने आंतरिक रूप से मामले की जांच बंद कर दी, यह कहते हुए कि उनकी कोशिशों के बावजूद नजीब का पता नहीं चल पाया।
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कोर्ट में बंदी रिपोर्ट दाखिल करने की अनुमति: हालाँकि, CBI को तुरंत बंदी रिपोर्ट दाखिल करने की अनुमति नहीं थी। दिल्ली हाई कोर्ट से अनुमति मिलने के बाद ही, सितंबर 2022 में, CBI ने निचली अदालत में बंदी रिपोर्ट दाखिल की, जिसमें जांच रोकने की सिफारिश की गई थी।
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माँ का संघर्ष और आरोप: नजीब की माँ, फातिमा नफीस, इस बंदी रिपोर्ट के खिलाफ लगातार अदालत में लड़ती रहीं। उन्होंने और उनके वकीलों ने दलील दी कि यह एक “राजनीतिक मामला” है। उनका आरोप था कि CBI ने “अपने मालिकों के दबाव में आकर” जल्दबाजी में मामला बंद करने की कोशिश की है। उन्होंने ABVP से जुड़े उन छात्रों की गहन जांच की मांग की जिनके साथ नजीब की झड़प हुई थी। फातिमा नफीस का सात साल से अधिक का संघर्ष एक माँ की अथक जिजीविषा और सिस्टम के खिलाफ लड़ाई की मार्मिक गाथा है।
अदालत का ताजा फैसला और आगे का रास्ता:
ACJM ज्योति माहेश्वरी ने इसी महीने की शुरुआत में कहा था कि वह CBI की बंदी रिपोर्ट को स्वीकार करने या न करने पर फैसला सुनाएंगी। आखिरकार, सोमवार को उन्होंने रिपोर्ट स्वीकार कर ली, जिसका मतलब है कि फिलहाल CBI की जांच औपचारिक रूप से बंद हो गई है।
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“लिबर्टी टू रीओपन”: फैसले में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि अदालत ने यह “स्वतंत्रता” (Liberty) भी दी है कि अगर भविष्य में इस मामले में कोई नया सबूत या जानकारी सामने आती है, तो मामले को दोबारा खोला जा सकता है। यह परिवार के लिए एक छोटी सी किरण है, हालाँकि फिलहाल यह निराशाजनक खबर ही है।
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सवाल अब भी अनुत्तरित: अदालत का फैसला आ गया है, लेकिन वे बुनियादी सवाल आज भी वैसे के वैसे खड़े हैं:
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नजीब अहमद कहाँ हैं? क्या वे जीवित हैं? अगर नहीं, तो उनके साथ क्या हुआ?
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14 अक्टूबर की रात हुई झड़प का सच क्या है? ABVP से जुड़े छात्रों की क्या भूमिका थी?
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क्या जांच एजेंसियों ने पूरी तरह और निष्पक्ष तरीके से जांच की? क्या कोई दबाव काम कर रहा था?
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हॉस्टल वार्डन का बयान कितना विश्वसनीय है? क्या नजीब वाकई सुबह ऑटो पर बैठकर हॉस्टल से गए थे?
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सफदरजंग अस्पताल जाने और MLC न बनवाने की कहानी का सच क्या है? क्या यह पूरा सच है?
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एक जख्म जो अब तक रिस रहा है
नजीब अहमद का मामला सिर्फ एक व्यक्ति के गायब होने का मामला नहीं रहा। यह भारतीय शिक्षण संस्थानों में छात्र सुरक्षा, राजनीतिक संगठनों के प्रभाव, जांच एजेंसियों की क्षमता और स्वतंत्रता, और एक साधारण परिवार के न्याय पाने के संघर्ष का प्रतीक बन गया है।
CBI जांच के बंद होने का मतलब यह नहीं है कि मामला सुलझ गया। बल्कि, यह एक दुखद यथार्थ है कि सात साल बाद भी एक माँ को अपने बेटे का पता नहीं चल पाया, और उसके सवालों के जवाब नहीं मिल पाए। अदालत ने भविष्य में मामला दोबारा खोलने का रास्ता जरूर छोड़ा है, लेकिन इसके लिए किसी नए, ठोस सबूत का मिलना जरूरी होगा।
फातिमा नफीस का संघर्ष जारी है। उनकी आँखों में अब भी वही सवाल है: “मेरा बेटा कहाँ है?” जब तक इस सवाल का जवाब नहीं मिलता, तब तक नजीब अहमद का मामला सिर्फ एक फाइल नहीं, बल्कि भारतीय न्याय प्रणाली और समाज के सामने एक जीवित सवाल बना रहेगा। यह मामला याद दिलाता है कि कैसे गुमशुदगी का दर्द सिर्फ एक परिवार का नहीं, बल्कि पूरे समाज के विवेक को झकझोर देने वाला होता है। न्याय की उम्मीद अब भी बाकी है, लेकिन वक्त के साथ धुंधलाती जा रही है।